ज़िंदगी कभी फूलों का हार नज़र आती है
तो कभी ये कांटों का ताज़ नज़र आती है
कभी लगती है जैसे संगीत की मधुर लहरी,
तो कभी बिना सुरों का साज़ नज़र आती है
कहीं दिखती है अमीरों के ठाठों में बेसुध,
कहीं कंगाल के चूल्हे की राख नज़र आती है
कभी मज़दूर के पसीने में झलकती है वो,
तो कभी बे- ईमानों के साथ नज़र आती है
कभी हंसती मुस्कराती है अपनों के बीच,
तो कभी यूं ही गैरों के साथ नज़र आती है

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