जो दब चुके हैं राख में, उन शोलों को मत कुरेदिए !
जो भर चुके हैं जैसे तैसे, उन घावों को मत कुरेदिए !
बदल देते हैं खेल सारा वो अतीत के नापाक मंजर,
अब गुज़र चुके जो पीछे, उन लम्हों को मत कुरेदिए !
अतीत के गुलशन से बस चुनिए तो फूल खुशियों के,
भाई आये हो छोड़ पाछे, उन ख़ारों को मत कुरेदिए !
इन लफ़्ज़ों की मार से मैंने देखे है कितने ही घायल,
अरे जो बसा रखे है दिल में, उन भावों को मत कुरेदिए !
यहां पे हर किसी को हक़ है अपनी ज़िन्दगी जीने का,
फिर मज़हब के नाम पे, उनके मनों को मत कुरेदिए !
ये जमाना तो सब्र कर लेता है हर तरह से ही "मिश्र",
यूं सियासत के नाम पे, उसके जज़्बों को मत कुरेदिए !