जिधर देखो दुनिया में, बस दिखता है आदमी
फिर भी क्यों तन्हा सा, यहाँ दिखता है आदमी
चुप चाप जमाने के सहते हुए ज़ुल्मो सितम,
खुद ही अपनी लाश को, लिए फिरता है आदमी
अजीबो गरीब दुनिया का ये कैसा चलन है,
आदमी के ही हाथों रोज़, यहां मरता हैं आदमी
इक पल का चैन मयस्सर नहीं किसी को कभी,
ज़िन्दगी भर फ़िक्र से ही, यहां मरता है आदमी
चिंता से भरी रातें तो गुज़र जाती हैं जैसे तैसे
फिर सुबह से शाम तक, बिकता फिरता है आदमी
कही कुदरत की मार कभी सियासत के लफड़े,
यूं ही दुनिया के कष्टों में, यहां घुटता है आदमी...

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