जाने कितने ख्वाबों को, मैंने बिखरते देखा है,
ज़िन्दगी की सरगम को, मैंने बिगड़ते देखा है!
आदमी चलता है सोच कर हर चाल शतरंजी,
फिर भी मोहरों को अक्सर, मैंने पिटते देखा है!
जो खोदता हैं गड्ढा किसी और के लिए राहों में,
उसमें उसको ही अक्सर, मैंने फिसलते देखा है!
जो उड़ते थे आसमानों में कभी परिंदों की तरह,
न जाने कितनों को दर दर, मैंने भटकते देखा है !
लगा कर गैरों के घर में आग होते हैं खुश लोग,
पर कितनों को उसी आग मैं, मैंने जलते देखा है !
न जाने कहाँ खो गए वो मोहब्बतों के रात दिन,
अब तो राहों में शराफत को, मैंने तड़पते देखा है!
न समझोगे दोस्त इस फरेबी दुनिया का आलम,
आँखों से अगाध रिश्तों को, मैंने उजड़ते देखा है !
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