न रहीम नज़र आता है, न राम नज़र आता है ,
उसे तो वास्ते पेट के, बस काम नज़र आता है !

भटकता फिरता है वो दरबदर, वक़्त का मारा,
उसको तो बस रोटी में, हर धाम नज़र आता है !

न उसे मज़हब से कुछ मतलब, न सियासत से,
उसे तो अपना वजूद, बस ग़ुलाम नज़र आता है !

वो तो है कामगार, उसका काम है बस मजदूरी,
उसकी आँखों में खुदा पे, इल्ज़ाम नज़र आता है !

न देखता है वो सपने, रहने को ऊंचे महलों में,
उसे तो अपनी झोपड़ी में, आराम नज़र आता है !

उसे तो छलती आयी है सियासत, सपने दिखा के
पर उसके हाथों में सदा, टूटा जाम नज़र आता है !

'मिश्र' सब कुछ बदल गया, न बदला नसीब इनका
जब झांकता हूँ आँखों में, तो विराम नज़र आता है !

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