जिधर देखता हूँ उधर, अँधेरा ही अँधेरा है !
न जाने कितनी दूर, मेरी रात का सवेरा है !
बामुश्किल बचा हूँ मैं दुश्मनों के चंगुल से,
मगर अफ़सोस मुझे, अपनों ने आ के घेरा है !
क्या गुल खिलाते हैं लोग देखना है ये आगे,
यहां तो हर तरफ, बस डाकुओं का बसेरा है !
ख़ुशी का कोई कोना न मिलता ढूंढने से अब,
जिधर देखो बस उधर, अब दहसतों का घेरा है !
लड़ रहे हैं लोग सब हड़पने को चीज़े गैरों की,
पर भूलते हैं कि दुनिया में, न मेरा है न तेरा है !
कब तक बचोगे दोस्त जमाने की साजिशों से,
दुनिया में हर शख्स ही, दिखता अब लुटेरा है !!!
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