दुनिया की सारी दौलतें भी, हैं भला किस काम की,
अपनों के बिन ये शौहरतें भी, हैं भला किस काम की !
उनकी रौनक से रोशन था मेरा ये घर आंगन कभी
अब तो सूरज की रोशनी भी, है भला किस काम की !
ग़म है तो सिर्फ इतना कि दूर हो गये मुझसे अपने
अब तो जीने की चाहत भी, है भला किस काम की !
वो न समझें इस दर्द को ये तो है उनकी मर्ज़ी दोस्त,
अब तो फिज़ूल में ये सोच भी, है भला किस काम की !