यारो चाहत थी जिसकी, न पा सके हम
खोल के #दिल अपना, न दिखा सके हम
खूब देखी क़रीब से ये मतलबी दुनिया,
किसी को भी अपना, न बना सके हम
आता है रहम खुद पर ही हमको यारो,
कोई भी ख़्वाब अपना, न सजा सके हम
बनाते रहे डगर बस औरों के वास्ते ही,
मगर मुक़ाम अपना ही, न पा सके हम
ये फौलाद का होता तो बात अलग थी,
पर नाजुक से दिल को, न मना सके हम
उम्र का तकाज़ा है या कुछ और है "मिश्र".
अपनों की दी चोट को, न भुला सके हम