बहुत वक़्त लगता है, किसी का यकीन पाने में !
मगर लगता नहीं एक लम्हा भी, उसे गॅवाने में !
जुबाँ की हरकतें न जाने क्या क्या कराती हैं,
उम्र गुज़र जाती है, आग लगाने और बुझाने में !
अब तो गिरगिट भी कुछ नहीं आदमी के आगे,
जाने कितने रंग भरता है, अपना रंग जमाने में !
अपनी करतूत पे बस डालते रहते हैं लोग पर्दे,
मज़ा आता है उनको तो, बस और को सताने में !
अब यही दस्तूर है दोस्त कि अपने लिए जियो,
वर्ना तो क्या रखा है इधर, औरों से जी लगाने में !

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