शोषण होता मज़दूरों का, किसी को इसका ध्यान नहीं
उनकी कीमत कितनी है, किसी को इसका ज्ञान नहीं
ठेकेदार और मालिक मिलकर, उनका शोषण करते हैं
खुद लाखों लाख कमा कर बस, अपना पोषण करते हैं
सुबह से लेकर शाम तलक, वो मेहनत करते रहते हैं
क्या उनका हिस्सा मिलता है, या यूं ही खटते रहते हैं
मालिक की अथाह कमाई में,मेहनत का कितना हिस्सा है
इसकी गणना कोई न करता,ये हर मज़दूर का किस्सा है
जिस विकास की बात कर रहे, वो मज़दूरों की थाती है
नेतागण जो डींग हांकते, वो कभी न हमको भाती है
वो तो मरने को भर्ती होते हैं, हमको क्या लेना देना
हम नेता चाहे देश को लूटें, जनता को क्या लेना देना
पता चलेगा नेता जी जब दौड़ लगाकर हाथ जोड़ कर आओगे
आज नहीं है समय आप पर कल घर घर अलख जगाओगे
तब पूंछेंगे हम हाथ दिखा कर अब क्या लेने देने आये हो
लूट लिया सब देश हमारा क्या अब वापस करने आये हो
जनता का क्या लेना देना अब जनता तुम्हें बतायेगी
जीवन भर तुम याद रखोगे ऐसा सबक सिखाएगी
जाओ पहले सद्कर्म करो तब हमसे तकरार करो
बेटों को सरहद पर भेजो फिर हमसे इसरार करो
रात का अँधेरा तो सुबह होते ही छंट जायेगा
कोहरे का असर भी सूरज के साथ घट जायेगा
क्या करें उस रात का जो दिल में अँधेरा कर गयी
क्या करें उस धुंध का जो मन में बसेरा कर गयी
नहीं उजाला दिल के अंदर तो सूरज भी क्या काम करे
मन में तेरे भरा हलाहल तो अमृत भी क्या काम करे
प्यार का दीप जला कर दिल में घोर अँधेरा दूर करो
प्यार की बात बसा कर मन में घोर हलाहल दूर करो
बातें तो आती जाती हैं उनका मत संकलन करो
गुजर गया सो गुजर गया उसका मत आकलन करो
भेड़ों का इक झुण्ड है जनता, जिसकी अपनी कोई डगर नहीं
आगे की भेड़ किधर जाती है, इसकी उनको कोई खबर नहीं.
आँख मूंद बस चल पड़ती हैं, परिणाम की उनको फिक्र नहीं
यूं ही खट जाती हैं मिट जाती हैं, फिर भी उनको अक्ल नहीं.
आंख खोलकर दुनियाँ देखो,परखो,तब अनुशरण करो
ये डगर कहाँ ले जायेगी, जी भर कर पहले मनन करो
नेता के लिये ये भोली जनता, केवल मात्र एक रस्ता है
उनके लिये तुम जीवन भी देदो, उनको दिखता सस्ता है
ये कुर्सी का चस्का ऐसा जो सबको ही लग जाता है
छोड़ छाड़ सब धर्म कर्म उसके पीछे लग जाता है
जो धूनी अलघ जगाते थे वो भी इसके दीवाने हैं
जो अल्लाह की खिदमत में थे वो भी इसके दीवाने हैं
आम आदमी मूरख बन कर इनका साथ निभाता है
कुर्सी जब मिल जाती है तो उसको ही आंख दिखाता है
कालिज का जिसने मुंह नहीं देखा वो मंत्री बन जाता है
पढ़े लिखों का आका बनकर उन पर रौब जमाता है
यौवन बीता आया बुढ़ापा पर फिर भी कुर्सी प्यारी है
इसे लोकतंत्र कहते हैं भाई इसकी तो महिमा न्यारी है