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बा -मुश्किल मिली है आज़ादी, ज़रा संभल के रहिये
पहना दे बेड़िया फिर से न कोई, ज़रा संभल के रहिये
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जो डर के भागता है ज़िंदगी से, उसे हम क्या कहें
खुद लटक जाता है जो फंदे पे, उसे हम क्या कहें
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यूँ ना समझो देश को स्वाधीनता यूँ ही मिली है
हर कली इस बाग़ की कुछ खून पीकर ही खिली है
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हम फौजीओं का ना कोई त्यौहार
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शहीद होने के बाद
फिर रोवे हमारा परिवार ...
दो दिन दिखाई जाए #TV पर हमारी खबर.
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ज़माने भर में मिलते हैं आशिक कई ,
मगर वतन से खूबसूरत कोई सनम नहीं होता ।
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न हिन्दू होते न हम मुसलमान होते
काश हम एक अच्छे से इंसान होते
न आतीं गोलियों की बौछारें कहीं से
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