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अलग अपना घर बसा कर क्या मिला हमको
रिश्तों को अकारण तोड़ कर क्या मिला हमको
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वक़्त को गुज़रना है, वो तो गुज़र जायेगा
ये दौलत का नशा भी, कल उतर जायेगा
समेट रखा है जो तूने ये सब कुछ यारा,
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फिर न सिमटेगी ज़िंदगी गर बिखर जायेगी
ये कोई रात नहीं जैसे भी हो गुज़र जायेगी
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किस को हकीकत कहें, किस को वहम समझें
किस को कमतर कहें, किस को अहम समझें
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कितना प्यार किया काया से वो यहीं पड़ी रह जायेगी
ये दौलत और
रिश्तों की ममता यहीं तलक रह जायेगी...
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आज फिर कही मर जाने को जी चाहता है,
आज फिर किसी को #रुला जाने को जी #चाहता है...
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अपना काम किसी और पर छोड़ा नहीं जाता
प्यार भरे
रिश्तों को बेवजह तोड़ा नहीं जाता
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मुद्दत गुज़र जाती है अपनों को अपना बनाने में,
वक़्त यूं ही गुज़र जाता है बस मुश्किलें सुलझाने में...
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आरज़ू थी मेरे दिल की, कि कोई न मुझसे रूठे !
इस ज़िन्दगी में अपनों का, कभी न साथ छूटे!
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कितने मतलबी हैं हम, कि अपना ही घर देखते हैं !
गर जलता है घर किसी का, तो अपने हाथ सेकते हैं !
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