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कभी फुर्सत में ज़रा, हमें भी याद किया होता
दिन में वक़्त नहीं, ख़्वाबों में याद किया होता
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जिस
दिन से उनसे दूर हुए, हमने तो हँसना छोड़ दिया
हो कर रह गए दीवारो में क़ैद, बाहर निकलना छोड़ दिया
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गुज़र गया जो वक़्त, उसे फिर मुड़ते नहीं देखा
टूट गए जो #प्यार के रिश्ते, फिर जुड़ते नहीं देखा
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गले से ग़मों को न लगाएं तो क्या करें
यूं रात
दिन आंसू न बहाएं तो क्या करें...
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ऐ #बादल तू #बरसात करवा दे,
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हम किसे कहें और कौन सुनेगा, हम कैसे बर्बाद हुए
कैसे गुज़रीं वो काली रातें, और
दिन कैसे बर्बाद हुए
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ढूढने से क्या मिलेगा, मेरे इस वीरान घर में
छा गए हैं ग़मों के जाले, मेरे इस वीरान घर में
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क्या कहूँ और कैसे कहूँ,
कि मैं क्या #लिखता हूँ..
हर #व़क्त के हर #लम्हें में,
नये #अल्फ़ाज लिखता हूँ...
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#
दिन हो या #रात, हम बस #सफ़र करते है,
#गर्मी हो या #बरसात, हम बस #सफ़र करते है...
नही #जानते कौन #पास है #कौन नही,
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उतार चढ़ाव तो हर शख्स की
#जिन्दगी में आता है....
जो #सम़झ सके इस बात को
वही #इन्सान कहलाता है...
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