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किसी को आखिर हम भुलाएँ कैसे,
किसी को बे सबब हम रुलायें कैसे !
झूठे सपने दिखाना नहीं आता हमें,
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हम तो अपनों को, अपना संसार समझ बैठे,
उन्हें ज़िन्दगी की नैया का, पतवार समझ बैठे !
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जो न मिल सके, उसे पाने की कोशिश न कीजिये,
अंजान को, अपना बनाने की कोशिश न कीजिये !
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रहता हूं किराये की काया में,
रोज़ सांसों को बेच कर किराया चूकाता हूं...!
मेरी
औकात है बस मिट्टी जितनी,
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कभी क़ातिल रिहा, कभी मासूम लटक जाता है,
फरेबों के सहरा में, बेचारा सच भटक जाता है !
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हर तरह के 👹 मुखौटे 👺, वो लगाए हुए हैं,
लोग
औकात अपनी, यूं छुपाये हुए हैं !
क़त्ल करके भी बेगुनाह बनते हैं वो,
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वो आये थे मेरे घर पे, मगर बदनाम कर गए !
वो न जाने कितनी तोहमतें, मेरे नाम कर गए !
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यूं ही बिना मतलब के, वो बात बोल देते हैं
खुद ब खुद अपना ही, वो राज़ खोल देते हैं
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तुम्हारे दिये दर्द ने जलाया मुझे,
आँसूओ ने हाथों में खिलाया मुझे
इतनी कहाँ
औकात थी मेरी
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