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अलग अपना घर बसा कर क्या मिला हमको
रिश्तों को अकारण तोड़ कर क्या मिला हमको
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खिंची चली आती हैं तितलियाँ, फूलों के क़रीब
भंवरे भी छेड़ते हैं अपनी तान, फूलों के क़रीब
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उनकी चाहतें दिल में समाती चली गयीं
वक़्त की आंधियाँ करीब आती चली गयीं
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मतलबी ज़माने से, बहुत बेज़ार है मेरा दिल
किसी की चाहतों का, तलबगार है मेरा दिल
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मुस्कराते रहें आप, हज़ारों ग़मों के होते हुए
जैसे हँसता गुलाब, हज़ारों कांटों के होते हुए
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ज़रूरत नहीं है, किसी को भी ज़ख्म दिखाने की
बड़ी ही दिल फरेब है नज़र, ज़ालिम ज़माने की
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मेरी तो ज़िन्दगी का, बस इतना फ़साना है
राहों में कांटे हैं मगर, कुछ दूर और जाना है
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आज कल
मुस्कराने का, कोई आधार नहीं मिलता
किसी को कैसे कहें अपना, वो आधार नहीं मिलता
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पुरानी #यादों को, सजाने में क्या रखा है
सूखे ज़ख्मों को, सहलाने में क्या रखा है
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चरागों का रात भर जलना, हमें अच्छा नहीं लगता
किसी का यूं कलेजा फूंकना, हमें अच्छा नहीं लगता
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